जल्द ही उत्तराखंड की शादियों और मांगलिक कार्यों में महिला बैंड पौराणिक वाद्य यंत्रों को बजाती नजर आएंगी। प्रदेश से ढोल दमाऊ की खत्म होती परंपरा को बचाने के लिये लोक गायिका माधुरी बड़त्थवाल ने अपनी एक टीम बनाकर उसे ढोल और दमऊं का प्रशिक्षण दे रही हैं। महिलाओं के ढोल बजाने को सांस्कृतिक और सामाजिक बदलाव के एक अहम पड़ाव के रूप में भी देखा जा रहा है।
आपको बता दें कि माधुरी बड़थ्वाल ने 32 साल आकाशवाणी में काम किया है, वहां से रिटायर होने के बाद जब वह देहरादून आई तो उन्हें शादियों और मंगल कार्यक्रमों में कुछ कमी लगती थी। वो कमी थी परंपरागत ढ़ोल व दमाऊ की आवाज।लेकिन माधुरी के प्रयास से ढ़ोल की थाप पहाड़ी इलाकों में महिला सशक्तीकरण की गूंज पैदा कर रही है।आपको बता दें कि महिलाओं का ढ़ोल थामना रुढ़ियों को चुनौती है क्योंकि ढोल वादन परंपरागत रुप से औजी समाज के पुरुषों का पेशा है।
प्रशिक्षण ले रहीं महिलाएं
गौरतलब है कि उत्तराखंड से पलायन के साथ वहां की लोक संस्कृति भी खत्म होती जा रही है। प्रदेश से खत्म होती संस्कृति को बचाने का जिम्मा अब महिलाओं ने उठाया है। माधुरी करीब 20 महिलाओं की एक टीम बनाकर उन्हें वाद्य यंत्रों को बजाने का प्रशिक्षण दे रही हैं। टीम जल्द ही शादी ब्याह में ढोल-दमाऊं एक पेशेवर की तरह बजाती नजर आएगी।
माधुरी को यह प्रेरणा एक शादी के दौरान ही मिली। शादी उत्तराखंड की रीति रिवाजों के मुताबिक हो रही थी लेकिन उस शादी से पारंपरिक वाद्य यंत्र पूरी तरह से गायब थे। आपको बता दें कि पहाड़ में ढोल-दमाऊं बजाने का काम बाजगी समाज के जिम्मे है। जो सदियों से यह काम करते आए हैं। उनके लगाए मंडाण पुरानी पीढ़ी के जेहन में तो हैं, मगर पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव कहें या लोगों का अपने इलाके से दूरी नई पीढ़ियों को उस संस्कृति से दूर करती जा रही है। इस वजह से प्रदेश के पुराने वाद्य यंत्र भी खत्म होने के दहलीज पर पहुंच गए हैं।इस बात को ध्यान में रखते हुए गायक माधुरी बड़थ्वाल ने पहली बार महिलाओं का ढ़ोल बैंड बनाया है।
उम्मीद यही है कि माधुरी के इस प्रयास से न सिर्फ़ पारंपरिक वाद्यों की लुप्त होती कला बच सकेगी बल्कि समाज में महिलाओं को बराबरी पर लेने में भी ये प्रयास अहम भूमिका निभायेगा।