जहां एक तरफ सभी क्रिसमस की तैयारियों में जुटे है, तब उत्तराखंड के सौ से ऊपर के गांव जोकि जौनसार और जौनपुर में पड़ते हैं, वहां एक खास दिवाली मनाई जा रही है। जी हां, ये जानकार शायद आपको यकीन नही होगा लेकिन दिवाली के ठीक एक महीने बाद मनाई जाने वाली यह दिवाली को यहां के लोग बुग्वाल या बग्वाली कह कर बुलाते हैं ।
जौनपुर के कोल्टी गांव जिसमें तकरीबन 40 परिवार हैं लोग बुग्वाल/बग्वाली मनाते हैं। यहां मनाये जाने वाला ये तीन दिन का उत्सव महिलाओं के दिल के बहुत करीब है, क्योंकि उनके लिए यह एक सलाना उत्सव होता है जिसमें वो पुरी ठाठ-बाट से हिस्सा लेती हैं। सरिता देवी जो कि कोल्टी गांव से है कहती हैं, “इस त्योहार का हमारे दिल में खास स्थान है, हम सब अपने गांव-घर वापस आते हैं ताकि अपने परिवार के साथ थोड़ा समय बिता सके, हम गाने बजाने के साथ ऩृत्य भी करते हैं। हम बेसब्री से बुग्वाल का इंतज़ार करते हैं।” जबकि सारी महिलाएं तरह-तरह के पकवान बनाने में व्यस्त रहती हैं और फिर व्यंजनों को पूरे गांव में बांटती हैं।
खुले आसमान के नीचे आदमियों का जत्था कतार बना कर घर के बाहर खड़ा होकर ढोल बजाता है और साथ में गाता भी है।समय के साथ साथ सालों पुरानी इस परंपरा का प्रचलन भी बदल रहा है। पहाड़ों से हो रहा पलायन इसका एक बड़ा कारण है। गांव के बड़े-बूढों के लिए इस त्योहार के मायने बदल गए हैं, भरत सिंह कहते हैं कि, “यहां का युवा वर्ग पहाड़ों को छोड़कर आस–पास के शहरों में लुभावनी नौकरी के लिए बस गए हैं, जिसमें से बहुत तो त्योहारें में भी वापस नहीं आते” वो बताते हैं कि जब हम बच्चे थे यहां बहुत कुछ होता था जैसे कि पंडाल लगते थे, रोशनी होती थी लेकिन धीरे–धीरे हमारी परंपरा अपनी पहचान खो रही है।”
मेघ सिंह कंडारी, सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं, लोकगीत में यह बताया है कि दिवाली की सुचना लगभग एक महीने देर से पहाड़ों में पहुंची थी,इसलिए यहां एक महीने देर से दिवाली मनाई जाती है। यह पहले पूरे गढ़वाल,हिमाचल के कई हिस्सों में मनाई जाती थी लेकिन अब यह केवल जौनसार बावर और जौनपुर तक सीमित रह गया है। तीन दिन में पहले भाणङ, बारज अौर फिर होलङे जलाये जाते है और पारंपरिक व्यंजन जैसे कि कवांले पकौड़े, असके बनाए और बांटे जाते हैं।
बुग्वाल/बग्वाली के पीछे मान्यता ये है कि ये त्योहार योद्धा माधो सिंह भंडारी की वीरता के उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है, भंडारी वो योध्दा हैं जिन्होने गढ़वाल और तिब्बत की सीमाओं को सील किया था। इस सीमा को आज की मैक मोहन लाइन के रूप में भी जाना जाता है।
जैस-जैस सूरज पहडो के पीछे ढलने लगता है, पहाड़ो में ढोल और दमौ की ढाक पर माहिला और पुरूष दोनों अपने नाच में खो जाते हैं और मेरा मंत्र मुगध होकर बगवाल की खुशी मनाते हैं।