दिमाग लगा कर देखने वाली फिल्म नहीं है ‘पागलपंथी’ : अनीस बज्मी

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‘नो एंट्री’, ‘वेलकम’, ‘सिंह इज किंग’, ‘वेलकम बैक’ जैसी कॉमेडी फिल्मों के निर्देशक अनीस बज्मी फिर एक बार ‘पागलपंथी’ के माध्यम से दर्शकों को हंसाने आ रहे हैं। उनकी ताजातरीन फ़िल्म ‘पागलपंथी’ 15 नवम्बर को रजत पट के 70 एमएम के पर्दे पर अपनी पहुंच बनाएगी।
अखिलेश कुमार : आपके अनुसार आपकी फ़िल्म ‘पागलपंथी’ को दर्शकों को क्यों देखना चाहिए? 
अनीस बज्मी : पागलपंथी कॉमेडी फिल्म है। इसको बनाने का उद्देश्य लोगों को खुशी प्रदान करना है। उन्हें ठहाके लगाने का अवसर देना है। हमारी फ़िल्म का टैगलाइन है दिमाग लगाकर फ़िल्म नहीं देखें। हो सकता है क्रिटिकों को इसमें बहुत फ्लॉ नजर आए लेकिन हमने तो पागलपंथी बनाई है। सभी किरदार पागलपन की हद तक हरकतें करते हैं। उनकी हरकतों पर हंसा ही जा सकता है। उसमें आलोचना का कोई स्कोप नहीं है।
अखिलेश कुमार : आप अपनी फिल्मों के लिए आइडिया कहां से लेते हैं? 
अनीस बज्मी : देखिये मैं खूब फिल्में देखता हूं। देसी-विदेशी फिल्में, सीरियल देखता हूं। खूब पढ़ता हूं। लोगों से मिलता हूं। इस प्रकार कोई न कोई एक आइडिया मिल जाता है। उस एक लाइन की आइडिया को घटनाओं में पिरो कर कथा और पटकथा बनाई जाती है। मेरी फिल्मों में कहानी बहुत महत्वपूर्ण नहीं होती बल्कि सिचुएशन महत्वपूर्ण होता है। वैसे सिचुएशन जो कॉमिक हो।
अखिलेश कुमार : आपने पागलपंथी में बाटला हाउस, परमाणु में सीरियस रोल करने वाले जॉन अब्राहम से कॉमेडी करवा लिया? 
अनीस बज्मी : पहले हमारी फिल्मों में हीरो के समानांतर एक कॉमेडियन होता था। अपने जमाने के मशहूर कॉमेडियन रहे जॉनी वाकर, महमूद, जगदीप, केश्टो मुखर्जी, मोहन चोटी आदि बेहतरीन कॉमिक अभिनेता थे। समय बदला हीरो सब तरह के रोल करने लगे। सभी तरह के इमोशन्स को साकार करने में सक्षम अभिनेता आने लगे। इस फ़िल्म में भी अनिल कपूर, जॉन, अरशद वारसी की तिकड़ी धमाल मचाएगी। इन तीनों की कॉमिक टाइमिंग गजब की है।
अखिलेश कुमार : क्या आप अपने अभिनेताओं को आपके लिखे से हट कर कुछ बोलने की छूट देते हैं? 
अनीस बज्मी : यह अभिनेता पर डिपेंड करता है। अमूमन मैं अभिनेताओं को दायरे में नहीं बांधता। उन्हें सिचुएशन से खुलकर खेलने का मौका देता हूं।
अखिलेश कुमार : आपकी सिनेयात्रा में कौन-कौन आपका पाथेय बने? 
अनीस बज्मी : देखिये मैंने सभी पूर्वर्ती लेखकों निर्देशकों से सीखा है। सबकी अपनी-अपनी विशेषता रही है। उनकी विशेषताओं में से कुछ न कुछ लेकर अपनी अलग शैली बना ली। जैसे गुलजार साहब बहुत अच्छे लेखक हैं दूसरी ओर सलीम जावेद का मुरीद रहा हूं। गुलजार साहब की सादगी और सलीम जावेद के आलंकारिक भाषा के बीच में मैं अपनी राह तलाश लेता हूं। उदाहरण स्वरूप ‘ये अजीब शहर है यहां फल देने के पहले पेड़ पैसे मांग लेगा’ इसे गुलजार भाई ही लिख सकते थे। इसके विपरीत दूसरी ओर सलीम जावेद साहब इसी बात को लिखते हैं, “अगर इस दुनिया में इज्जत से जीना है तो कुछ मोल तो देना पड़ेगा। मैं इन दोनों के बीच का रास्ता अपनाता हूं। लोगों को मेरे डायलॉग पसंद आते हैं।”