दल बदलने में माहिर हरक सिंह का सियासी सफर

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आखिरकार पूर्व कैबिनेट मंत्री एवं विधायक हरक सिंह रावत ‘पुनः मुषको भवः’ के तर्ज पर फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए। कांग्रेस के बड़े नेताओं के सामने उन्होंने कांग्रेस की पुनः सदस्यता ली। उनके साथ उनकी बहू अनुकृति भी कांग्रेस में शामिल हुई हैं। करीब पांच साल पहले कांग्रेस छोड़कर वे भाजपा में आए थे। इनकी राजनीतिक जीवन यात्रा भाजपा से ही शुरू हुई थी। करीब चालीस साल के राजनीतिक जीवन में वे कई पार्टियों में रहे हैं।

हरक सिंह रावत ने 80 के दशक में गढ़वाल विश्वविद्यालय से छात्र राजनीति में कदम रखा था। तब इन्होंने एबीवीपी से छात्र राजनीति शुरू किया था।1984 में भाजपा के टिकट से पहली बार विधानसभा चुनाव लड़े और हार गए। इसके बाद 1991 में भाजपा के टिकट पर ही पौड़ी सीट से जीतकर विधायक बने। उस साल उत्तर प्रदेश में भाजपा की कल्याण सिंह की सरकार बनी। हरक सिंह सबसे कम उम्र के मंत्री बने।

1993 में उत्तर प्रदेश में फिर से विधानसभा चुनाव हुए। उसमें पौड़ी सीट से वे दोबारा विधायक चुने गए। लेकिन तीसरी बार भाजपा से टिकट नहीं मिलने पर इन्होंने पार्टी छोड़ दी बसपा के हाथी पर सवार हो गए। बसपा में रहते हुए इन्होंने 1998 का लोकसभा चुनाव लड़ा लेकिन हार गए। हाथी की सवारी इन्होंने ज्यादा दिनों तक नहीं की। बसपा से 1998 में वे कांग्रेस में शामिल हो गए। साल 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जब अलग उत्तराखंड राज्य बनाया तब हरक सिंह कांग्रेस में थे। राज्य का पहला विधानसभा चुनाव उन्होंने लैंसडौन सीट से लड़ा और कांग्रेस के विधायक बने। उस वक्त प्रदेश में कांग्रेस की एनडी तिवारी सरकार बनी। हरक सिंह एनडी तिवारी सरकार के कैबिनेट में शामिल हुए।

तिवारी सरकार और हरक सिंह से जुड़े एक दिलचस्प घटना का जिक्र करते हुए वरिष्ठ पत्रकार दाताराम चमोली बताते हैं, ‘बसपा में रहने के कारण हरक का मायावती से अच्छे संबंध थे। उस विधानसभा में बसपा के 7 विधायक थे। हरक सिंह ने मायावती को पाठ पढ़ाया कि कांग्रेस के 12 विधायक को तोड़कर बसपा में शामिल हो जाते हैं और भाजपा के समर्थन से सरकार बनाते हैं। उस बसपा सरकार में मुख्यमंत्री हरक सिंह होते। लेकिन हरक के इस प्लान की जानकारी तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी को लग गई। कहा जाता है तिवारी ने तब जैनी प्रकरण उछलवाया। मीडिया में जैनी प्रकरण सुर्खियां बनने के बाद हरक को तिवारी मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा। मुख्यमंत्री तो दूर उन्हें मंत्री पड़ से भी इस्तीफा देना पड़ा।’

साल 2007 में हरक सिंह फिर से कांग्रेस के टिकट पर लैंसडाउन से चुनाव लड़े और जीते। वे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष और विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता भी रहे हैं। 2012 में इन्होंने कांग्रेस के टिकट पर ही रुद्रप्रयाग से चुनाव लड़ा। इस चुनाव में भी इन्हें जीत मिली। तब कांग्रेस ने विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री घोषित किया तो हरीश रावत के समर्थक विधायकों ने दिल्ली में विरोध कर दिया। इसमें हरक सिंह रावत भी शामिल थे। बाद में हरक सिंह विजय बहुगुणा सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद कांग्रेस ने बहुगुणा को मुख्यमंत्री से हटाकर हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाया। हरीश रावत मंत्रिमंडल में हरक का कद और बढ़ा। लेकिन 2016 में उसी हरीश रावत की सरकार को गिराने में हरक सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें विधानसभा की सदस्यता गंवानी पड़ी। 2017 में चुनाव से पहले वह भाजपा में शामिल हो गए। वह चुनाव हरक सिंह ने भाजपा के टिकट पट कोटद्वार सीट से लड़ा। वे चुनाव जीते और और मंत्री बने।

भाजपा सरकार में मंत्री रहते वे अपने ही मुख्यमंत्री से उलझते रहे। कई बार उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी ही सरकार की आलोचना की। आखिरकार चुनाव से ऐन पहले अपने परिवार के तीन सदस्यों को टिकट देने के हरक के दबाव के सामने भाजपा नहीं झुकी। दबाव की राजनीति को अस्वीकार करते हुए भाजपा ने उन्हें छह साल के लिए पार्टी से निष्कासित कर दिया।