राज्य ही नहीं देश में स्ट्रीट डॉग की बड़ी समस्या बनी है।लेकिन अब उत्तराखंड पुलिस ने स्ट्रीट डॉग पर अनूठा प्रयोग किया जो रंग लाने लगी है। पुलिस ने अपने डॉगस्क्वाड में देसी नस्ल का कुत्ता शामिल किया है जो शायद देश का पहला आवारा कुत्ता होगा जो ट्रेनिंग के बाद बेहतरीन स्निफर डॉग बनेगा।
अक्सर गलियों में घूमने वाले आवारा कुत्ते आम जनता के लिए सर दर्द बने रहते हैं, लेकिन उत्तराखंड पुलिस ने देश में पहली बार एक प्रयोग किया है जिसमे सड़कों पर आवारा घूमने वाले कुत्ते को पुलिस की ट्रेनिंग दी, तो वह नामी नस्लों के लाखों रुपये के दाम वाले कुत्तों से कहीं आगे निकला।
बताया जा रहा है कि यह कुत्ता पुलिस दल में सबसे फुर्तीला स्निफर बन रहा है। इसकी सूंघने की खूबी को अपनी ताकत बनाया और अपनी डॉग स्क्वाड का हिस्सा बना लिया। इस स्निफर डॉग का नाम भी पुलिस ने ठेंगा रखा है, वहीं ‘ठेंगा’ के ट्रेनर इंस्पेक्टर कमलेश का कहना है कि, “शुरू में ट्रेनिंग में दिक्क़ते हुई, लेकिन अब ये अन्य डॉग्स से भी जल्दी सीख रहा है। अभी तक पुलिस के डॉग स्क्वाड टीम में जर्मन शैफर्ड, लैबरा, गोल्डन रिटीवर जैसे विदेशी नस्ल के कुत्तों को ही रखा जाता था, जिनको ट्रेन कर पुलिस अपनी सुरक्षा एजेंसियों का हिस्सा बनाती थी, जिनको लाखों रूपये में खरीदा जाता था और इनकी ट्रेनिंग और रखरखाव में पुलिस का सालाना लाखों का खर्चा भी आता था।“
लेकिन ठेंगा जिसको पुलिस पिछले 6 महीने में ट्रेनिंग दे रही है और ये कुत्ता पुलिस ने गली से उठाया था। इसे पालने में भी पुलिस का खर्चा भी बहुत कम आता है। करीब छह माह के प्रशिक्षण के बाद ‘ठेंगा’ विदेशी नस्ल के कुत्तों को मात दे रहा है। आईजी संजय गुंजियाल बताते है कि, “ठेंगा का ये सफल परियोजन नामी नस्ल के कुत्तों के लिए एक सबक है।अगर ठेंगा सही माने में पुलिस की डॉग स्क्वाड टीम का सदस्य बनता है,तो आने वाले दिनों में पुलिस अन्य स्ट्रीट डॉग भी पुलिस के डॉग स्क्वाड टीम में देखने को मिलेंगे।“
आईजी संजय गुंजियाल बताते है कि, “मेरे द्वारा ‘ठेंगा ‘नाम रखने के पीछे एक पौराणिक घटना को आधार बनाने की कोशिश की गयी। “ठेंगा” उस कटे हुए एकलव्य के हांडमांस के अंगूठे का प्रतीक भर है, जो तत्कालीन समाज मे राजपरिवार या राजपुत्र अर्जुन को ही अजेय और सर्वश्रेष्ठ बनाने की जिद में तब तार्किकता एवं न्याय का दम घोटा गया और जिसके लिये कोई बोलने वाला ना था ,उसे प्रशिक्षण के योग्य तक भी ना तब समझा गया और सामाजिक असमानता को पोषित करने का दोषी तत्कालीन समाज रहा है । आखिर क्यों गुरुद्रोण के इस ‘सिस्टम’ में एक लायक को उस इनायत का हकदार नहीं बनाया गया , जो मात्र अर्जुन और राजपुत्रो के लिये था ? ढर्रे से अलग असमानता को नियति मानने से इनकार करता विद्रोही सोच युक्त वह कटा ‘ निर्जीव-सा-अंगूठा’ आज उस ‘पुरा-सोच’ को ठेंगा दिखाने की कोशिश में, पुलिस परिवार के सम्मानित सदस्य बनने की जद्दोजहद में देहरादून में प्रक्षिणाधीन है ।
इस प्रशिक्षण से स्थानीय गली के देसी नस्ल के “ठेंगा” की घ्राणशक्ति को यकीनन एक दिशा और दशा मिली है।