हरिद्वार। एक समय था जब मिट्टी के बर्तनों का ही उपयोग किया जाता था। समय बदला और उसके साथ धीरे-धीरे सब कुछ बदलता गया। प्राचीन कला पर आधुनिकता की ऐसी मार पड़ी की सभ्यता विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई। एक समय था जब कुम्हार मिट्टी के बर्तनों को बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। लेकिन धीरे-धीरे आधुनिकता के चलते मिट्टी के बर्तनों के साथ-साथ शहर के कुम्हार भी बाजारों से गुम होते जा रहे हैं, जिसकी वजह से उनकी रोजी-रोटी पर संकट के बदल छा गए हैं।
भागदौड़ भरी जिंदगी और चकाचैंध की दुनिया के चलते कुम्हारों की कलाकारी बाजारों से धीरे-धीरे कहीं गुम होती जा रही है। लेकिन गर्मी के सीजन में इनकी दुकानदारी बढ़ जाती है। इस मौसम में लोग बड़ी तादाद में घड़ों को खरीदना पसंद करते थे, लेकिन जैसे-जैसे सीजन खत्म होता जाता है, वैसे-वैसे कुम्हारों द्वारा बनाए गए घड़े बाजारों में मात्र शो-पीस बनकर रह जाते हैं। आधुनिकता का आलम यह है कि लोग अब मिट्टी के घड़े भी खरीदना पसंद नहीं करते। पुरानी पीढ़ी का ही थोड़ा लगाव मिट्टी के बर्तनों की ओर रह गया है। जबकि मिट्टी के बर्तन का पानी पीना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक बताया गया है। चिकित्सक भी फ्रीज के पानी से घड़े के पानी को बेहतर मानते हैं। जिस तरह से पिछले कुछ सालों में घड़ों की खरीद में गिरावट आई है, उससे उनके सामने रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया है।
हालांकि कुम्हार अपने काम को अभी भी करते हैं, किन्तु अब मिट्टी के बर्तनों की उतनी मांग न रहने के कारण इस काम से उनकी जीविका चलना कठिन हो रहा है। कनखल निवासी कुम्हार पूरण ने बताया कि अब तो मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए मिट्टी ही नहीं मिल रही है और न ही बाजरों में इन बर्तनों की डिमांड है। हालात ये पैदा हो गए हैं, कि सुबह से शाम तक एक घड़ा बेचना भी मुश्किल हो जाता है, जिसकी वजह से उनके सामने रोजी-रोटी का संकट मंडराने लगा है। बढ़ती गर्मी व नेचुरल पानी की तलाश में आज भी कई ग्राहक कुम्हारों की दुकानों की ओर खिंचे चले आते हैं। घड़ों के ग्राहक भी मानते हैं कि फ्रिज, और आरओ की बढ़ती डिमांड के कारण कुम्हारों का बाजार कम हुआ है, लेकिन आज भी बुजुर्ग पानी पीने के लिए घड़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे उनकी थोड़ी बहुत सेल हो जाती है।
आधुनिकता के कारण बाजारों से धीरे-धीरे मिट्टी के बर्तन गायब होते जा रहे हैं, अब वह दिन दूर नहीं जब कुम्हारों को रोजी-रोटी के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ेगी। वहीं, कुम्हारों की कलाकारी को बचाने के लिए सरकार और समाज के लोगों को आगे आना पड़ेगा, वरना सालों से चली आ रही मिट्टी के बर्तनों की पहचान कहीं गुम हो जाएगी।