प्रबंधन के वैश्विक गुरु श्रीकृष्ण

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युग परिवर्तन और बदले संदर्भों में भारतीय धर्मग्रंथों की जितनी व्याख्याएं हुई हैं, उतनी शायद दुनिया के अन्य धर्मग्रंथों की नहीं हुई है। इन ग्रंथों में श्रीमद्भागवद्गीता सबसे अग्रणी ग्रंथ है। इसका महत्व धर्मग्रंथ के रूप में तो है ही, प्रशासकीय प्रबंधन के ज्ञान भंडार के रूप में भी इसे पढ़ा व समझा जा रहा है। इसके व्यावहारिक ज्ञान को न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी कुशल प्रबंधन का अचूक मंत्र माना जा रहा है। इसी रूप में इसे सबसे ज्यादा समझने की कोशिश की जा रही है। महाभारत की यौद्धिक पृष्ठभूमि में श्रीकृष्ण ने युद्ध से पलायन को तत्पर अर्जुन को जो ज्ञान दिया था, उसे आज विश्व के कई विश्वविद्यालय अपने पाठ्यक्रमों का हिस्सा बना रहे हैं।

वर्ष 2008 से अमेरिका के न्यू जर्सी में स्थित सैटॉन हॉल विश्वविद्यालय में हरेक छात्र को गीता का अंग्रेजी अनुवाद पढऩा अनिवार्य कर दिया गया है। 1856 में स्थापित हुआ यह कैथोलिक विश्वविद्यालय पूरी तरह से स्वायत्त है। इसमें बड़ी संख्या में क्रिश्चियन एवं भारतीय छात्र हैं। राजस्थान विश्वविद्यालय ने भी वाणिज्य और प्रबंधन महाविद्यालयों में स्नातकोत्तर कक्षाओं की पढ़ाई में गीता और रामायण में प्रबंधन से जुड़े सूत्रों को पाठों में शामिल किया है। भारत की सबसे धनी मुंबई नगरपालिका ने अपने विद्यालयों में गीता की पढ़ाई शुरू कर दी है। ग्लोबल एकेडमी फॉर कारपोरेट ट्रेनिंग ने पिछले साल से गीता में दर्शाए गए सिद्धांतों को जोड़ते हुए एक डीवीडी तैयार की है। इस संस्था के संस्थापक विवेक बिंद्रा का मानना है कि इससे कंपनियों की उत्पादकता व कर्मचारियों की कार्यक्षमता बढ़ाने में मदद मिलेगी। गीता में दृष्टिकोण, नेतृत्व, प्रेरणा, कार्यदक्षता व योजना निर्माण जैसे प्रबंधन के अनेक आधुनिक सिद्धांतों की चर्चा संवाद शैली में दर्ज है। साथ ही प्रबंधन की समस्याओं के समाधान भी बताए गए हैं। तय है कि ये पाठ व्यक्ति और छात्रों में जहां दक्षता विकसित करेंगे, वहीं तेजी से निर्णय लेने की क्षमता भी विकसित करेंगे।

जीवनपर्यंत सामााजिक न्याय की स्थापना और असमानता को दूर करने के लिए कृष्ण बाल जीवन से ही दानवों और राजसत्ता से लड़ते रहे। वे गरीब की चिंता करते हुए खेतिहर संस्कृति और दुग्ध क्रांति के माध्यम से ठेठ देशज अर्थ व्यवस्था की स्थापना और विस्तार में लगे रहे। सामरिक दृष्टि से उनका श्रेष्ठ योगदान भारतीय अखण्डता के लिए उल्लेखनीय रहा। इसीलिए कृष्ण के किसान और गोपालक कहीं भी फसल व गायों के क्रय-विक्रय के लिए मंडियों में पहुंचकर शोषणकारी व्यवस्थाओं के शिकार होते दिखाई नहीं देते? कृष्ण जड़ हो चुकी उस राज और देव सत्ता को भी चुनौती देते हैं, जो जन विरोधी नीतियां अपनाकर लूट-तंत्र और अनाचार का हिस्सा बन गये थे ? भारतीय लोक के कृष्ण ऐसे परमार्थी थे, जो चरित्र भारतीय अवतारों के किसी अन्य पात्र में नहीं मिलता। कृष्ण की विकास गाथा अनवरत साधारण, लेकिन उल्लेखनीय मनुष्य बने रहने में निहित रही।

16 कलाओं में निपुण इस महानायक के बहुआयामी चरित्र में वे सब चालाकियां बालपन से ही थीं, जो किसी चरित्र को वाक्पटु और थोड़ी उद्दण्डता के साथ निर्भीक नायक बनाती हैं। फिर भी बाल कृष्ण जब माखन चुराते हैं तो अकेले नहीं खाते, अपने सब सखाओं को खिलाते हैं और जब यशोदा मैया चोरी पकड़े जाने पर दण्ड देती हैं तो उस दण्ड को अकेले कृष्ण झेलते हैं। वे दण्ड का भागीदार उन सखाओं को नहीं बनाते, जो चाव से माखन खाने में भागीदार थे। चरित्र की यह विलक्षणता किसी उदात्त नायक की ही हो सकती है।
कृष्ण का पूरा जीवन समृद्धि के उन उपायों के विरूद्ध था, जिनका आधार लूट और शोषण रहा। शोषण से मुक्ति, समता व सामाजिक समरसता से मानव को सुखी और संपन्न बनाने के गुर गढऩे में कृष्ण का चिंतन लगा रहा। इसीलिए कृष्ण जब चोरी करते हैं, स्नान करती स्त्रियों के वस्त्र चुराते हैं, खेल-खेल में यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए कालिया नाग का मान-मर्दन करते हैं, उनकी यह सब चंचलताएं रूपी हरकतें अथवा संघर्ष उत्सवप्रिय हो जाते हैं। नकारात्मकता को भी उत्सवधर्मिता में बदल देने का गुरूमंत्र कृष्ण चरित्र के अलावा दुनिया के किसी अन्य इतिहास नायक के चरित्र में विद्यमान नहीं है ?

भारतीय मिथकों में कृष्ण के अलावा कोई दूसरी ईश्वरीय शक्ति ऐसी नहीं है, जो राजसत्ता से ही नहीं, उस पारलौकिक सत्ता के प्रतिनिधि इन्द्र से विरोध ले सकती हो, जिसका जीवनदायी जल पर नियंत्रण था? यदि हम इन्द्र के चरित्र को देवतुल्य अथवा मिथक पात्र से परे मनुष्य रूप में देखें तो वे जल प्रबंधन के विशेषज्ञ थे। कृष्ण ने रूढ़, भ्रष्ट व अनियमित हो चुकी उस देवसत्ता से विरोध लिया, जिस सत्ता ने इन्द्र को जल प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंपी हुई थी और इन्द्र जल निकासी में पक्षपात बरतने लगे थे। किसान को तो समय पर जल चाहिए, अन्यथा फसल चौपट हो जाने का संकट उसका चैन हराम कर देता है। कृष्ण के नेतृत्व में कृषक और गोपालकों के हित में यह शायद दुनिया का पहला आंदोलन था, जिसके आगे प्रशासकीय प्रबंधन नतमस्तक हुआ और जल वर्षा की शुरूआत किसान हितों को दृष्टिगत रखते हुए शुरू हुई।
पुरुषवादी वर्चस्ववाद ने धर्म के आधार पर स्त्री का मिथकीकरण किया। इन्द्र जैसे कामी पुरुषों ने स्त्री को स्त्री होने की सजा उसके स्त्रीत्व को भंग करके दी। देवी अहिल्या के साथ छलपूर्वक किया गया दुराचार इसका शास्त्र सम्मत उदाहरण है। आज नारी नर के समान स्वतंत्रता और अधिकारों की मांग कर रही है, लेकिन कृष्ण ने तो औरत को पुरुष की बराबरी का दर्जा द्वापर युग में ही दे दिया था। राधा विवाहित थी, लेकिन कृष्ण की मुखर दीवानी थी। ब्रज भूमि में स्त्री स्वतंत्रता का परचम कृष्ण ने फहराया। जब स्त्री चीर हरण (द्रौपदी प्रसंग) के अवसर पर आए, तो कृष्ण ने चुनरी को अनंत लंबाई दी। स्त्री संरक्षण का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण दुनिया के किसी अन्य साहित्य में नहीं है ? इसीलिए वृंदावन में यमुना किनारे आज भी पेड़ से चुनरी बांधने की परंपरा है, जिससे आबरू संकट की घड़ी में कृष्ण रक्षा करें। आज बाजारवादी व्यवस्था ने स्त्री की अर्ध निर्वस्त्र देह को विज्ञापनों का एक ऐसा माल बनाकर बाजार में छोड दिया है, जो उपभोक्तावादी संस्कृति का पोषण करती हुई लिप्साओं में उफान ला रही है। स्त्री खुद की देह को बाजार में उपभोग के लिए परोस रही हैं। स्त्री शुचिता की ऐसी निर्लज्जता के प्रदर्शन, कृष्ण साहित्य में देखने को नहीं मिलते।

कृष्ण युद्ध कौशल के महारथी होने के साथ देश की सीमाओं की सुरक्षा संबंधी सामरिक महत्व के जानकार थे। इसीलिए कृष्ण पूरब से पश्चिम अर्थात मणिपुर से द्वारका तक सत्ता विस्तार के साथ उसके संरक्षण में भी सफल रहे। मणिपुर की पर्वत श्रृंखलाओं पर और द्वारका के समुद्र तट पर कृष्ण ने सामरिक महत्व के अड्ढे स्थापित किए, जिससे कालांतर में संभावित आक्रांताओं यूनानियों, हूणों, पठानों, तुर्कों, शकों और मुगलों से लोहा लिया जा सके। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमारे यही सीमांत प्रदेश आतंकवादी घुसपैठ और हिसंक वारदात का हिस्सा बने हुए हैं। कृष्ण के इसी प्रभाव के चलते आज भी मणिपुर के मूल निवासी कृष्ण दर्शन से प्रभावित भक्ति के निष्ठावान अनुयायी हैं। इससे पता चलता है कि कृष्ण की द्वारका से पूर्वोत्तर तक की यात्रा एक सांस्कृतिक यात्रा भी थी। इसी यात्रा के परिणामस्वरूप आज भारत पूरब से पश्चिम तक अखंडता के एक सूत्र में बंधा हुआ है। यह अचरज भरा वैभव कोई अद्वितीय मानव ही कर सकता है।

सही मायनों में बलराम और कृष्ण का मानव सभ्यता के विकास में अद्भुत योगदान है। बलराम के कंधों पर रखा हल इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य कृषि आधारित अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर हैं। वहीं कृष्ण मानव सभ्यता व प्रगति के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जो गायों के पालन से लेकर दूध व उसके उत्पादनों से अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाते हैं। ग्रामीण व पशु आधारित अर्थव्यवस्था को गतिशीलता का वाहक बनाए रखने के कारण ही कृष्ण का नेतृत्व एक बड़ी उत्पादक जनसंख्या स्वीकारती रही। भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में हमने कृष्ण के उस मूल्यवान योगदान को नकार दिया, जो किसान और कृषि के हित तथा गाय और दूध के व्यापार से जुड़ा था। बावजूद पूरे ब्रज-मण्डल और कृष्ण साहित्य में कहीं भी शोषणकारी व्यवस्था की प्रतीक मंडियों और उनके कर्णधार दलालों का जिक्र नहीं है। जीवित गाय को आहारी मांस में बदलने वाले कत्लखानों का जिक्र नहीं है। शोषण मुक्त इस अर्थव्यवस्था का क्या आधार था, हमारे आधुनिक कथावाचक पंडितों और प्रबंधन का गुर सिखाने वाले गुरुओं को इसकी पड़ताल करनी चाहिए ? कृष्ण ही थे, जो उन्होंने उन प्राकृतिक संसाधनों की चिंता की जिसके उत्पादन तंत्र को विकसित करने में भू-मण्डल को लाखों-करोड़ों साल लगे। कृष्ण तो इस जैव-विविधता रूपी सौंदर्य के उपासक व संरक्षक थे, जिससे ग्रामीण जीवन व्यवस्था को प्राकृतिक तत्वों से जीवन संजीवनी मिलती रहे। गोया कि, कृष्ण पौराणिक युग के काल्पनिक पात्र कतई नहीं थे, वे मानव थे और उनमें मानवजन्य तमाम खूबियां और खामियां थीं। इन सबके बावजूद वे एक ऐसे उदात्त नायक थे, जो अपने गुणों के कारण महाभारत युद्ध के नेता और प्रणेता बने। कारण यही है कि उन्हें राजसत्ता विरासत से नहीं मिली थी।