स्वादिष्ट और लज़ीज़ व्यंजन किसे अच्छे नहीं लगते, मगर क्या आप जानते हैं कि आधुनिक युग के उपकरण व्यंजनों का स्वाद बिगाड रहे हैं। जी हां आज के ज़माने की मिक्सी हमारे भोजन का जायका बिगाड़ रही है। कभी सिलबट्टे पर पिसे मसाले और चटनी की सुगंध और मसालों का स्वाद हमारे भोजन को लज़ीज़ बनाते थे मगर काम की आपाधापी और समय बचाने की जुगत में हम वो स्वाद ही भूल चुके हैं। सिलबट्टे की जगह बिजली से चलने वाली मिक्सी ने ले ली और हम असली स्वाद को ही भुला चुके है। वहीं पत्थर को तराश कर उसे उपयोग में लाने के लिए कड़ी मेहनत कर पत्थर तराशने वाले कास्तकारों के सामने की भी रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है।
पत्थरों को आकार देकर उसे घरेलू उपयोग के लिये बनाने वाले कास्तकारों की कला पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। आधुनिक दौर ने इन्हें इनके इस पैत्रिक काम को ही छोड़ने पर मजबूर कर दिया है। बुख्शा जनजाति के लोग सालों से पत्थरों को तराश कर उन्हें भोजन में उपयोग के लिए बनाते हैं मगर सिलबट्टों की जगह मिक्सी ने जब से ली है तब से पत्थरों के इन कास्तकारों के सामने रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है। कई पिढियों से पत्थरों को तराशने वाले कास्तकार आज जहां भुखमरी की कगार पर हैं, वही इनके व्यापार पर भी संकट मंडरा रहा है। कभी असली स्वाद के लिए सिलबट्टों की मांग इतनी अधिक थी कि इससे जुडे़ कास्तकारों की आजीविका आसानी से चल जाती थी मगर अब लगातार ही उनका व्यापार घटता जा रहा है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड की सीमा से सटे क्षेत्र में सिलबट्टों का सबसे बड़ा कारोबार काशीपुर में ही होता था, खास तौर पर यहां लगने वाले चैती मेले में इसका खास तौर पर पत्थर बाजार लगाया जाता है जहां हर प्रकार के पत्थरों के कास्तकार अपनी कला को बेचते हैं लेकिन ना अब पत्थर ही मिल पाते हैं और ना तराशे पत्थरों के कदरदान।
जबकि महिलांए भी मानती है कि भोजन का असली स्वाद सिलबट्टों पर पिसे मसालों से ही आता है जबकि मिक्सी से पिसे मसालों से भोजन बनता है मगर स्वाद नहीं मिलता। बहरहाल पत्थरों को तराशने वाले सिलबट्टों के कास्तकारों के सामने जहां आर्थिक संकट खड़ा है वहीं नयी पीढी भोजन के असली स्वाद से महरुम हो रही है। आधुनिक मशीनों ने किचन से सिलबट्टों को बाहर कर दिया है तो दूसरी ओर कास्तकारों को भुखमरी की कगार पर छोड़ दिया है।