कॉलेजों की छात्र राजनीति बनी चिंता का सबब

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दून इस समय छात्र संघ चुनाव के शोर से गूंज रहा है। छात्र नेता पूरे जोर-शोर से खुद को बेहतर साबित करने और छात्र हितों की रक्षा की ताल ठोकते दिख रहे हैं लेकिन धरातल पर देखें तो छात्र संगठनों की प्राथमिकता में न छात्र हैं, न ही छात्र हित। स्थिति यह है कि तमाम छात्र संगठन सीधे तौर पर या अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़े हैं और उन्हीं के एजेंडे पर चुनाव मैदान में हैं। कॉलेज तमाम समस्याओं से जूझ रहे हैं लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं।

शिक्षा में गुणवत्ता के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है शिक्षकों की तैनाती लेकिन धरातल पर गौर करें तो बीते कई वर्षों से 50 फीसद से ज्यादा पद खाली हैं। संसाधनों के मामले में भी तमाम कॉलेजों की स्थिति बदतर है। जो शिक्षक तैनात हैं, उनकी उपस्थिति को लेकर किए गए तमाम प्रयासों के बावजूद शिक्षक छात्रों के लिए कम ही उपलब्ध होते हैं। इतना ही नहीं ट्यूशन का खौफ अब भी छात्रों पर नजर आता है। बात ढांचागत और छात्र सुविधाओं की करें तो दून के किसी भी कॉलेज के भवन को पर्याप्त और सुदृढ़ नहीं कहा जा सकता। छात्र-छात्राओं के लिए साफ सुथरे शौचालय, परिसर में वाइ-फाई या इंटरनेट की सुविधा, खेलने के लिए पर्याप्त संसाधन, पढ़ने के लिए उच्चस्तरीय पुस्तकालय तक नहीं हैं। छात्र-छात्राओं की सुरक्षा के लिए भी किसी कॉलेज के पास पर्याप्त संसाधन नजर नहीं आते। किताबों और पाठ्यक्रम में सुधार को लेकर भी कोई कवायद नहीं की जाती। इनके अलावा विश्वविद्यालयों से जुड़े मामलों में भी स्थिति बेहतर नहीं है। परीक्षाओं के आयोजन से लेकर परिणाम जारी किए जाने तक में देरी होती है, जिस कारण छात्र कई छात्रवृत्तियों का लाभ नहीं ले पाते। इसके अलावा अंक तालिकाओं व उपाधि समय से न मिलने से भी छात्रों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है।
इन तमाम बिंदुओं पर मशक्कत की जरूरत है। इसके बावजूद छात्र राजनीति के पैरोकारों के पास इनमें से कोई मुद्दा नजर नहीं आता। चुनावों का शोर तो है लेकिन न तो अब तक कोई छात्र संगठन घोषणा पत्र जारी कर पाया है, न ही इन मुद्दों को छू पाया है। छात्र संगठन महज नारेबाजी और प्रत्याशियों के नामों तक ही अटका है। ऐसे में छात्र नेतृत्व को मजबूत करने और छात्र हितों को आवाज देने की मंशा छात्र संघ चुनावों में कहीं नजर नहीं आती। हां, चुनाव के दौरान अव्यवस्थाएं, मारपीट, संस्थानों से उगाही जैसी समस्याएं जरूर नजर आती है। ऐसे में छात्र राजनीति किस दिशा में जा रही है, इस पर मंथन करने की जरूरत है।
बीते एक दशक पर गौर करें तो दून के चार कॉलेजों से 40 छात्र संघ अध्यक्ष और करीब 300 अन्य पदाधिकारी चुने गए। इसके बावजूद आज छात्रहितों के मुद्दों पर आवाज उठानी हो तो 100 लोग एकत्र नहीं होते लेकिन किसी राजनीतिक दल की रैली में भीड़ बढ़ानी हो तो हजारों छात्रों को यही छात्रनेता जुटा लेते हैं। साफ है कि छात्र राजनीति केवल बड़े नेताओं के लिए भीड़ एकत्र करने का जरिया मात्र बनकर रह गई है।

कहां से आता है चुनाव खर्च
हर साल छात्र संघ चुनाव में लाखों रुपये फूंके जाते हैं। सवाल यह है कि ये राशि आती कहां से है। सूत्रों की मानें तो कुछ संगठन शिक्षण संस्थानों की कमियों को निशाना बनाकर उगाही करते हैं तो कुछ संगठन बड़े राजनीतिज्ञों के बूते चुनाव में खर्च करते हैं। ऐसे में चुनाव जीतने के बाद उनकी निष्ठा इन्हीं वित्तीय सहायकों के साथ जुड़ी रहती है और छात्र हित के मुद्दे हाशिये पर होते हैं।
प्रमुख मुद्दे, जो एजेंडे में नहीं
-शिक्षकों की कमी
-संसाधनों की कमी
-शिक्षकों की उपस्थिति
-भवनों की स्थिति
-कॉलेजों की कमी
-छात्रवृत्तियां
-परीक्षाओं और परिणामों में देरी
-अंकतालिका व उपाधि मिलने में परेशानी
-खेल सुविधाएं
-शौचालय
-छात्रों की सुरक्षा
-इंटरनेट की सुविधा
-कंप्यूटर लैब
-पुस्तकालय
-प्रयोगशालाएं
-साफ-सफाई
-किताबें
-पाठ्यक्रम में सुधार
-ट्यूशन पढ़ने की बाध्यता
रविंद्र जुगरान, पूर्व छात्र नेता, पूर्व उपाध्यक्ष राज्य युवा कल्याण परिषद ने कहा कि छात्र राजनीति अपनी राह भटक गई है। छात्र-छात्राओं के मुद्दों को भूल छात्र अराजक हो रहे हैं। उन्हें दिशा देने वाला कोई नहीं है, सभी छात्रों को भटका रहे हैं।
वहीं, संग्राम सिंह पुंडीर, पूर्व छात्र संघ अधयक्ष, डीएवी कॉलेज ने कहा कि बेहतर कल के लिए माहौल तैयार करना होगा। किसी न किसी को सुधार के लिए तो आगे आना ही होगा। प्रत्याशी के नाम राजनीतिक दल तय करेंगे तो साफ है कि छात्रों की निष्ठा भी उन्हीं के साथ होगी।
जबकि पूर्व छात्र नेता आदित्य चौहान ने कहा किअधिकांश छात्र बस ग्लैमर के लिए छात्र राजनीति में आ गए हैं। राज्य के हजारों छात्र हर साल पलायन कर रहे हैं। कारण, पढ़ने के लिए साधन नहीं है। इस ओर छात्र नेताओं को ध्यान देना चाहिए।