मल्लीताल के ऐतिहासिक फ्लैट्स मैदान के चारों ओर सभी धर्मों के स्थल एक-दूसरे की बांहें थामे साम्प्रदायिक सौहार्द का संदेश दिखाई देते हैं। यह स्थल हैं नगर की आराध्य देवी माता नयना का मंदिर, गुरुद्वारा गुरु सिंह सभा, जामा मस्जिद, आर्य समाज मंदिर और मैथोडिस्ट चर्च। इनमें खास है मैथोडिस्ट चर्च। कम ही लोग जानते होंगे कि देश-प्रदेश के इस छोटे से पर्वतीय नगर में देश ही नहीं एशिया का पहला अमेरिकी मिशनरियों द्वारा निर्मित मैथोडिस्ट चर्च स्थित है।
नगर के मल्लीताल में बोट हाउस क्लब के पास माल रोड स्थित मैथोडिस्ट चर्च को यह गौरव हासिल है। इस चर्च की स्थापना की कहानी रोचक है। यह वह दौर था जब देश में 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम की क्रांति हो रही थी। मेरठ अमर सेनानी मंगल पांडे के नेतृत्व में इस क्रांति का अगुवा था, जबकि समूचे रुहेलखंड क्षेत्र में रुहेले सरदार अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हो रहे थे। इसी दौर में बरेली में शिक्षा के उन्नयन के उद्देश्य से अमेरिकी मिशनरी रेवरन बटलर पहुंचे।
कहा जाता है कि रुहेले सरदारों ने उन्हें भी देश पर राज करने की नीयत से आए अंग्रेज समझकर उनके परिवार पर जुल्म ढाने शुरू किए। इनसे बचकर बटलर अपनी पत्नी क्लेमेंटीना बटलर के साथ 1841 से शहर के रूप में विकसित हो रहे नैनीताल आ गए। यहां उन्होंने शिक्षा के प्रसार के लिए 1858 में नगर के पहले स्कूल के रूप में हम्फ्री कालेज (वर्तमान सीआरएसटी स्कूल) की स्थापना की। इसके परिसर में ही बच्चों एवं स्कूल कर्मियों के लिये प्रार्थनाघर के रूप में चर्च की स्थापना की। तब तक अमेरिकी मिशनरी एशिया में कहीं और इस तरह चर्च की स्थापना नहीं कर पाऐ थे। इसलिए यह एशिया का पहला अमेरिकी मिशनरियों द्वारा स्थापित किया गया चर्च हो पाया।
लेखक जॉन एन शालिस्टर की 1956 में लखनऊ से प्रकाशित पुस्तक ‘द सेंचुरी ऑफ मैथोडिस्ट चर्च इन सदर्न एशिया’ में भी नैनीताल के इस चर्च को एशिया का पहला चर्च कहा गया है। रेवरन बटलर ने नैनीताल के बाद पहले यूपी के बदायूं तथा फिर बरेली में 1870 में चर्च की स्थापना कराई। उनका बरेली स्थित आवास बटलर हाउस वर्तमान में बटलर प्लाजा के रूप में बड़ा बाजार बन चुका है, जबकि देरादून का क्लेमेंट टाउन क्षेत्र का नाम भी संभवतया उनकी पत्नी क्लेमेंटीना के नाम पर ही है।
सेंट जॉन्स इन द विल्डरनेस के निर्माण की कहानी भी रोचक
नैनीताल का सबसे पुराना चर्च ‘सेंट जॉन्स इन द विल्डरनेस’ नगर के सूखाताल क्षेत्र में स्थित है। 1841 में नैनीताल में बसावट शुरू होते ही अंग्रेजों के पूजास्थल के रूप में इस चर्च की स्थापना के प्रयास प्रारंभ हो गए थे। कुमाऊं के वरिष्ठ सहायक कमिश्नर जॉन हैलिट बैटन ने चर्च बनाने के लिए सूखाताल के पास इस स्थान को चुना। मार्च 1844 में कोलकाता के बिशप डेनियल विल्सन एक पादरी के साथ नैनीताल आए। विशप को चर्च के लिए चुनी गई इस जगह पर ले जाया गया तो उन्हें पहली नजर में यह जगह इतनी पसंद आ गई कि उन्हें यह जगह जन्नत जैसी लगी, इसलिए बिशप ने इस चर्च को नाम दिया ‘सेंट जॉन इन द विल्डरनेस, यानी ‘जंगल के बीच ईश्वर का घर’।
कुमाऊं के तत्कालीन कमिश्नर जीटी लूसिंगटन के आदेश पर अधिशासी अभियंता कैप्टन यंग ने चर्च की इमारत का नक्शा बनाया। चर्च की इमारत तो दिसंबर 1856 में बन कर तैयार हुई, परंतु इससे पहले ही 2 अप्रैल 1848 को निर्माणाधीन चर्च को पहले ही प्रार्थना के लिए खोल दिया गया। चर्च के निर्माण में 15 हजार रुपये खर्च हुए। यह धनराशि 1807 में चंदे के रूप में जुटाई गई। 18 सितंबर, 1880 को नैनीताल में हुए प्रलयंकारी भूस्खलन में 43 यूरोपियन सहित 151 लोग मारे गए। इनमें से कुछ को चर्च से सटे कब्रिस्तान में दफनाया गया और इस भूस्खलन में मौत के मुंह में समा गए यूरोपियन नागरिकों की याद में चर्च मे एक पीतल की पट्टी पर सभी यूरोपियन मृतकों के नामों का उल्लेख किया गया, जिसे आज भी यहां देखा जा सकता है।