उत्तराखंड : अक्टूबर में अभूतपूर्व आपदा, सरकार की कोशिशें और सबक

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आपदा

उत्तराखंड में अक्टूबर माह में ऐसी आपदा आई है, जिसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। इस समय किसी को भी ऐसी जल प्रलय की उम्मीद नहीं थी। यह मौसम पहाड़ों पर सैलानियों के घूमने का व स्थानीय लोगों के लिए बारिश की नमी मिटाकर मौसम की बेफिक्री से काम निपटाने का होता है। दशहरे, सप्ताहांत व ईद मिलादुन्नबी के साथ लंबे अवकाश भी थे। हजारों की संख्या में सैलानी बेफिक्री से पहाड़ों पर आकर प्रकृति व हिमालय के सौंदर्य का आनंद ले रहे थे। सैकड़ों तो हिमालय के पास तक भी पहुंच गए थे। ऐसे में अचानक मौसम विभाग ने रेड अलर्ट घोषित भी कर दिया तो किसी ने उस पर कान नहीं धरे। लेकिन कुदरत तो अक्टूबर माह के इतिहास को रौद्र रूप में बदलने पर आमादा था।

17 अक्टूबर की अल सुबह से बारिश ने किसी को अपनी जगह से हिलने, बचने का प्रयास करने का मौका भी नहीं दिया। इसके बाद 50 घंटे से भी अधिक समय तक प्रकृति ने लगातार बारिश के रूप में ऐसा कहर बरसाया कि नैनीताल जनपद सहित पूरे राज्य में 2013 और 1992 की आपदाएं भी पीछे छूट गईं।

नैनीताल और ज्योलीकोट-अल्मोड़ा राष्ट्रीय राजमार्ग इसका गवाह है, जिस पर खैरना-गरमपानी से आगे घटना के चार-पांच दिन बाद तक भी स्थानीय लोग व पत्रकार भी ठीक से आंकलन करने को भी नहीं जा पाए हैं, और वहां की तस्वीरें भी ठीक से नहीं आ पाई हैं। क्योंकि सड़कों पर सैकड़ों स्थानों पर मलबा है। यहां राष्ट्रीय राजमार्ग के चौड़ीकरण के नाम पर 90 डिग्री के कोण पर खड़े काटे गए भौर्या बैंड के पहाड़ पर राष्ट्रीय राजमार्ग का करीब 100 मीटर और लोहाली के पास 2013 व 1992 से अधिक करीब 700 मीटर हिस्सा कोसी नदी में समा गया है।

नैनीताल जनपद के ही 49 मार्ग 21 अक्टूबर की शाम तक बंद रहे, जबकि सैकड़ों स्थानों पर दर्जनों जेसीबी मशीनें लगकर मार्गों को खोल भी दिया गया है और हजारों की संख्या में सैलानियों को सेना की मदद से सुरक्षित उनके गंतव्यों को भेज दिया गया है। हालांकि अभी फंसे सैलानियों के बारे में सूचनाएं नहीं आ पाई हैं। नैनीताल के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी मात्रा में झील का पानी सभी गेट पूरे खोलने के बावजूद ओवरफ्लो होकर इस हद तक सड़कों पर निकला कि लोगों को बचाने के लिए सेना को बुलाना पड़ गया।

इस हादसे में जरूर नैनीताल जिले में 34 यानी आधे से अधिक और पूरे प्रदेश में करीब 60 लोगों का अनमोल जीवन छीना है, लेकिन गनीमत रही है कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में गए ट्रैकरों के साथ हुई घटनाओं को छोड़ दें तो पहाड़ों पर फंसे एक भी आम सैलानी की जान नहीं गई। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि मौके पर प्रदेश सरकार पुलिस, एसडीआरएफ, एनडीआरएफ व भारतीय सेना की मदद लेकर भी जनता के बीच रही है। सरकार की पहली कोशिश लोगों की जान बचाने की रही। लोगों को सबसे पहले जहां के तहां रोका गया। फिर उन्हें भोजन उपलब्ध कराया गया और बारिश रुकने पर उफनते नालों से भी लोगों को सुरक्षित बाहर निकाला गया। पुलिस ने सैलानियों के वाहनों में पेट्रोल भराकर, उन्हें होटलों में निःशुल्क ठहराकर व भोजन उपलब्ध कराकर भी मदद की। नैनीताल जनपद से ही महाराष्ट्र व छत्तीसगढ़ के सैलानियों के बड़े दल सुरक्षित लौटे।

मुख्यमंत्री ने भी खुद आपदा प्रभावित क्षेत्रों में तत्काल मोर्चा संभाला। तत्काल हेलीकॉप्टर से आए तो फिर सड़क मार्ग से आगे बढ़े। उनकी फ्लीट की एक कार बाढ़ में बह गई तो ट्रैक्टर से भी आपदाग्रस्त लोगों के पास पहुंचे। भीमताल के विधायक राम सिंह कैड़ा की तरह अन्य विधायक भी खुद मौके पर जाकर आपदा में हाथ बंटाते दिखे। देश के गृह मंत्री अमित शाह भी राज्य में आकर जायजा ले गए। प्रधानमंत्री ने भी ढांढस बंधाया और हरियाणा-उत्तर प्रदेश सरकारों ने मदद देने की पहल भी कर दी।

हालांकि सवाल यह भी है कि ऐसी घटनाओं से हम क्या सबक लेंगे? क्या हम सड़कों को नदियों के किनारे से गुजारने, पहाड़ को 90 डिग्री के कोण पर काटने व गांवों के ऊपर गोल-गोल घुमाकर गुजारने तथा घरों को नालों के पास बनाने से परहेज करेंगे? राज्य में नदियों के अनियंत्रित दोहन, अनियंत्रित तरीके से जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण, अनियंत्रित विकास से युवा पहाड़ों का सीना चीरने, अनियंत्रित तरीके से वाहनों की बढ़ती संख्या बढ़ाकर युवा पहाड़ों पर दनदनाने जैसी हरकतों पर क्या थोड़ा सा भी नियंत्रण करेंगे? या सिर्फ इस या उस सरकार को कोसेंगे और मुआवजे की बड़ी से बड़ी राशि की मांग कर और मुआवजा प्राप्त कर अपनी अमूल्य जीवन की कीमत आंकते व प्राप्त कर संतुष्ट होते रहेंगे? या कुछ आपदा को भी अवसर और मलबे को भी हलवा बनाकर अपने हित साधने के कुत्सित प्रयासों में लगे रहेंगे? यह सोचने के विषय हैं…..।