गैरसैंण: एक न सुलझने वाली पहेली

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हिंदी फिल्म में एक डायलॉग सुना था कि, राजनीति में कोई मुर्दा गढ़ा नही होता। उसका ज़ररूरत पड़ने पर कब कैसे इस्तेमाल किया जाना चाहिये ये कला है। एक ऐसा ही मुद्दा उत्तराखंड की राजनीति में है औऱ वो है गैरसैंण का जिन्न। 17 साल पहले राज्य बनते ही इस जिन्न का जन्म भी हो गया और तब से अब तक ये अपने आकाओं की राजvrतिक सेवाऐं समय समय पर करता रहा है, लेकिन किसी और जिन्न की कहानी की तरह ये खुद एक कल्पना भर बन कर रह गया है।

अब गैरसैंण में मौजूदा सरकार के बजट सत्र के रूप में एक और राजनीतिक स्टंट होने जा रहा है। इस पर हो रहे खर्चे औऱ पिछली सरकारों ने वहा की स्टंटबाजी के खर्चों पर करारी राजनीतिक बहस भी शुरू हो गई है। लेकिन ये उत्तराखंड के राजनीतिक काबलियत पर सवालिया निशान ही है कि 17 साल गुज़र जाने के बाद भी हमारे नेता राज्य को एक स्थाई राजधानी नहीं दे सके। नेता और पार्टियां ये तय नही कर पाये कि क्या राजधानी गैरसैंण में बनाना समझदारी है या देहरादून को ही स्थाई राजधानी मान लिया जाये। हां लेकिन इस मुद्दे की आंच से अपने राजनीतिक तवे को समय समय पर जलाकर तमाम नेताओं ने अपनी अपनी राजनीतिक रोटियां ज़रूर सेकी हैं।

इस सबके बीच ये ज़रूर है कि चाहे नेता हों या आम लोग सब इस मुद्दे  से जुड़े कुछ मूलभूत सवालों से आंखें मूंदे खड़े हैं। इन सबमें सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उत्तराखंड एक नई राजधानी बनाने के आर्थिक बोझ को झेलने की क्षमता रखता है। राज्य की मौजूदा आर्थिक हालात किसी से छुपे नहीं है। सरकार के खज़ाने पर खालीपन का ऐसा साया पड़ा हुआ है कि सरकार को अपने खुद के कर्मचारियों की तन्खवाहों का इंतजाम उधार लेकर करना पड़ रहा है। राज्य की अर्थव्यवस्था की बदहाली के लेकर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत मौजूदा वित्त मंत्री प्रकाश पंत को खुली बहस के लिये बुला रहे हैं पर अगर ऐसी बहस होती भी है तो इसका नतीजा क्या निकलेगा ये अनुमान लगाना किसी के लिये मु्श्किल नही होगा।

वहीं दूसरी तरफ प्रदेश के अलग लग हिस्सों में किसान बदहाली का शिकार हो रहे हैं और आत्महत्या तक करने को मजबूर हैं। लेकिन सरकार की आर्थिक हालत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि किसानों के कर्ज माफी से सरकार ने साफ हाथ खड़े कर दिये हैं।

इस सबके बीच क्या सरकार एक नई राजधानी बनाने का आर्थिक जोखिम उठा सकती है? अगर सरकार ये काम उधार के पैसों से कर भी ले तो क्या फिलहाल सरकार को ऐसा उधार राज्य की चरमरा रही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये नहीं लेना चाहिये?

गैरसैंण को राजधानी बनाने के पीछे एक बड़ा तर्क है कि पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ों में हेने से राज्य की तरक्की को “डबल इंजन” की रफ्तार मिल सकेगी। लेकिन इस तर्क से जुड़े सवाल हैं कि

  • क्या सच में राजधानी पहाड़ों में ले जाने से उत्तराखंड की विकास की गाड़ी पटरी पर ा सकेगी या इसके लिये राजनितिक इच्छा शक्ति की ज़रूरत है?
  • क्या राजधानी गैरसैंण ले जाने से हमारे अधिकारियों और बाबुओं का काम के प्रति रवैया उत्साहपूर्ण हो जायेगा?
  • क्या वहां जाने से हमारे नेता पहाड़ियों की सुध लेने लगेंगे?

बहरहाल गैरसैंण कब तक एक चुनावी मुद्दा रहेगा ये तो वक्त ही बतायेगा। पर इतना भी तय है कि अगर किसी भी सरकार ने राजनीतिक छक्का लगाने के लिये गैरसैंण को राजधानी घोषित कर दिया तो पहाड़ों की उस ऊंचाीई से राज्य को तरक्की की राह पर ले जाने के लिये ऐड़ी चोटी की जान लगानी पड़ेगी वरना छक्के भी छूट सकते हैं।