समृद्ध सांस्कृतिक विरासत सहेजे द्वाराहाट और स्याल्दे बिखौती का मेला

0
1593

‘ओ भिना कसिकै जानूं द्वारहाटा’ जैसे कुमाऊं के लोकप्रिय लोक गीतों में वर्णित और कत्यूरी शासनकाल में राजधानी रहा द्वाराहाट अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए देश-प्रदेश में प्रसिद्ध है। उत्तराखण्ड राज्य के अल्मोड़ा जिले में रानीखेत तहसील मुख्यालय से लगभग 21 किलोमीटर दूर गेवाड़ घाटी में स्थित इस छोटे से कस्बे में 8वीं से 13वीं शदी के बीच निर्मित महामृत्युंजय, गूजरदेव, मनिया, शीतला देवी व रत्नदेव आदि अनेक मंदिरों के अवशेष आज भी अपनी स्थापत्य कला से प्रभावित करते हैं। मंदिरों के चारों ओर अनेक भित्तियों को कलापूर्ण तरीके से शिलापटों अलंकृत किया गया है।

द्वाराहाट में मौजूद वर्ष 1048 में निर्मित बद्रीनाथ मंदिर समूह में तीन मन्दिरों को मिलाकर बना है। प्रमुख मंदिर में सम्वत 1105 अंकित काले पत्थर की विष्णु की मूर्ति स्थित है। स्थानीय नदी खीर गंगा के तट पर निर्मित एक अन्य वनदेव मन्दिर मध्य हिमालय के प्राचीन विकसित फांसना शैली के मन्दिरों में से एक है, जिसे पीड़ा देवल शैली के नाम से भी जाना जाता है। 13वीं शताब्दी में निर्मित तीसरा गुर्जर देव मन्दिर मध्य हिमालय में नागर शैली मंदिरों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। पंचायतन शैली में निर्मित यह मन्दिर एक ऊंचे चबूतरे पर स्थित है जिसका अधिष्ठान एवं जंघा भाग देव प्रतिमाओं, नर्तकों एवं पशु प्रतिमाओं से अलंकृत है। इस मन्दिर के स्थापत्य व ध्वसांवशेषों से ज्ञात होता है कि यह अत्यन्त भव्य मन्दिर था। कचहरी मन्दिर समूह में 11वीं से 13वीं शताब्दी में बने कुल 12 छोटे-बड़े अर्धमण्डप युक्त मूर्ति विहीन मन्दिर हैं। ए

क कुटुम्बरी मन्दिर की उपस्थिति 1960 तक बताई जाती है, पर अब यह अस्तित्व में नहीं है। इसकी वास्तु संरचनाओं के अवशेष निकटवर्ती घरों में किए गये निर्माणों में दिखते हैं। 11-12वीं शताब्दी में बना मनियान मन्दिर समूह नौ मन्दिरों का समूह है। इनमें से चार मन्दिर आपस में जुड़े हुए हैं। इनमें से तीन मंदिरों में जैन तीर्थकारों की तथा शेष में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां इतिहास की एक नई धारा की ओर इशारा करती हैं। इसी दौर में निर्मित मृत्युजंय मन्दिर समूह का प्रमुख मन्दिर भगवान शिव-मृत्युजंय को समर्पित है। नागर शिखर शैली में निर्मित यह पूर्वाभिमुखी मन्दिर त्रि-रथ योजना में निर्मित है, जिसमें गर्भगृह, अंतराल और मंडप युक्त है। मन्दिर परिसर में एक मन्दिर भैरव का तथा दूसरा छोटा मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था है। 11-13वीं शताब्दी में निर्मित रतनदेव मन्दिर समूह भी नौ मन्दिरों का समूह रहा है, पर अब इसमें छह मन्दिर ही बचे हैं। इनमें से ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को समर्पित तीन मन्दिर एक सामूहिक चबूतरे पर स्थित हैं। जिनके आगे उत्तरमुखी मंडप है जो सम्भवत् थे।

कुमाऊं के एक अन्य लोकप्रिय लोक गीत-‘अलबेरै बिखौती मेरि हंसि रिसै गे’ में वर्णित द्वाराहाट के प्रसिद्ध स्याल्दे बिखौती (यानी विषुवत संक्रान्ति) के मेले में आज भी ग्रामीण परिवेश की झलक मिलती है। पाली पछाऊँ क्षेत्र की परंपरागत लोक संस्कृति को पेश करने वाले इस मेले का माहौल आसपास के गांवों में फूलदेई के त्योहार से ही बनना प्रारंभ हो जाता है, द्वाराहाट से आठ किमी दूर प्रसिद्ध शिव मंदिर विमांडेश्वर में इसकी औपचारिक शुरुआत हो जाती है।

आगे मेला वैशाख माह की पहली तिथि तक द्वाराहाट बाजार तक पहुंच जाता है। मेले के दौरान गांवों में एक खास अंदाज में एक-दूसरे के हाथ थाम और कदम से कदम मिलाते हुए कुमाऊं के प्रसिद्ध लोक नृत्यों झोडे, चांचरी, छपेली आदि का परंपरागत वस्त्रों व अंदाज में लोग आनंद लेते मिल जाते हैं। मेले में द्वाराहाट बाजार की मुख्य चौक पर रखे एक खास पत्थर-ओड़ा को भेटने यानी छूने की एक खास परंपरा का निर्वाह किया जाता है। इस बारे में जनश्रुति है कि शीतला देवी के मंदिर से लौटने के दौरान एक बार किसी कारण दो गांवों के दलों में खूनी संघर्ष हो गया। हारे हुए दल के सरदार का सिर खड्ग से काट कर जिस स्थान पर गाड़ा गया वहां स्मृति चिन्ह के रूप में एक पत्थर रख दिया गया, जिसे ही ‘ओड़ा’ कहा जाता है। तभी से बनी ‘ओड़ा भेटने’ की परम्परा के अनुसर इस ओड़े पर चोट मार कर ही मेले में आगे बढ़ा जा सकता है। पहले इसके लिए ग्रामीणों को अपनी बारी आने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता था, लेकिन इसके लिए अब आल, गरख और नौज्यूला धड़ों के बीच एक सुव्यवस्थित व्यवस्था तय कर दी गई है। लोक नृत्य और लोक संगीत से लकदक इस मेले में अब भी रात-रात भर भगनौले जैसे लोकगीत अजब समां बाँध देते हैं। जिसे देखने-सुनने को पर्यटक भी दूर-दूर से पहुंचते हैं।