उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे आने से पहले असमंजस था और जब नतीजे निकले, तो सिर्फ और सिर्फ हैरत है। भाजपा की इतनी बड़ी जीत की उम्मीद पार्टी के रणनीतिकारों को भी नहीं थी और इसका एकमात्र श्रेय मोदी मैजिक को है, जिसने सत्तासीन पार्टी की वापस न होने के मिथक को तोड़ा और कई ऐसे निवर्तमान विधायकों को भी जितवा दिया, जिनकी जीत की उम्मीद नहीं थी।
अप्रत्याशित ढंग से निवर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की हार ने पार्टी के भीतर के समीकरण को एक झटके से बदल दिए हैं। जहां तक सवाल कांग्रेस का है, उसके सबसे बडे़ चेहरे हरीश रावत की हार के साथ ही पार्टी के पूरे प्रदर्शन ने उसके अरमानों को ध्वस्त कर दिया है।
उत्तराखंड की 70 सीटों के लिए हुए चुनाव में इस बार भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे का मुकाबला माना जा रहा था। ऊपरी तौर पर किसी भी दल के पक्ष में लहर जैसी कोई बात नहीं दिख रही थी। लोगों को कुछ कुछ 2012 का चुनाव भी याद आ रहा था, जिसमें सत्तासीन भाजपा को 31 और कांग्रेस को 32 सीटें हासिल हुई थी। अपने मजबूत संगठनात्मक ढांचे के अलावा अन्य जो बातें भाजपा को हिम्मत दे रही थी, उसमें दो बातों का जिक्र जरूरी हो जाता है। इनमें से पहली यह थी कि तीन-तीन मुख्यमंत्री बदलने के बावजूद भाजपा के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर नहीं थी। इसके अलावा, दूसरी अहम बात यह थी कि उत्तराखंड के खास कर ग्रामीण इलाकों और वहां भी महिला वोटरों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रति जबरदस्त क्रेज था। पूरा चुनाव कांग्रेस भी मजबूती से लड़ी, लेकिन मोदी का जादू ऐसा चला कि पार्टी के अरमान हवा में उड़ गए।
2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 11 सीटों पर सिमट गई थी, इस बार उसकी सीटों में तो इजाफा हुआ है, लेकिन भाजपा की जो प्रचंड लहर चली है, उसने उसकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया है। निवर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का चुनाव हार जाना कुछ कुछ ऐसा ही है, जैसा 2012 में भुवन चंद्र खंडूरी के कोटद्वार में चुनाव हार जाने पर महसूस किया गया था। खंडूरी की तरह धामी भी भाजपा का चुनाव में प्रमुख चेहरा थे। हालांकि तब भाजपा खंडूरी की हार के साथ ही सत्ता से बाहर हो जाने से भी दुखी थी। इस बार यह जरूर बदली स्थिति है कि धामी की हार के बावजूद भाजपा को प्रचंड जीत हासिल हुई है और उस पर जश्न मनाने का वाजिब कारण मौजूद है। यह सवाल अब जरूर खड़ा हो गया है कि धामी की जगह अब मुख्यमंत्री कौन होगा।
मिथक कहीं बरकरार, कहीं टूट गए-
विधानसभा चुनाव में इस बार सत्तासीन दल का दोबारा सत्ता में न आ पाने का मिथक टूट गया है, लेकिन गंगोत्री सीट से चुनाव जीतने वाले दल का सरकार बनाने का मिथक अपनी जगह है। इसी तरह, शिक्षा मंत्री के चुनाव न जीतने का मिथक इस बार टूट गया है। गदरपुर से अरविंद पांडेय ने चुनाव जीतकर इस मिथक को दफन कर दिया है। इससे पहले, तीरथ सिंह रावत, नरेंद्र सिंह भंडारी, मंत्री प्रसाद नैथानी जैसे नेताओं की चुनावी हार को इस मिथक से जोड़कर देखा जाता रहा है। निवर्तमान मुख्यमंत्री के चुनाव हारने का मिथक भी जस का तस है। इस मिथक पुष्कर सिंह धामी से पहले हरीश रावत, भुवन चंद्र खंडूरी के मामले से जोड़कर देखा गया है।
पिता को हराया था, बेटी को जिता दिया-
कोटद्वार विधानसभा सीट पर भाजपा उम्मीदवार ऋतु खंडूरी भूषण की जीत को असाधारण माना जा रहा है। वजह, वह यमकेश्वर की विधायक थीं और उनका वहां टिकट काट दिया गया था। दूसरी सूची में उन्हें अचानक से कोटद्वार का टिकट दे दिया गया, जहां पर उनके मुकाबले में कांग्रेस के दिग्गज पूर्व कैबिनेट मंत्री सुरेंद्र सिंह नेगी थे। नेगी 2012 में ऋतु के पिता भुवन चंद्र खंडूरी को उस चुनाव में हरा चुके हैं, जिनसे संबंधित नारा खंडूरी है जरूरी देते हुए भाजपा चुनाव में उतरी थी। इस बार के चुनाव में वोटरों ने मानो प्रायश्चित कर लिया।